यही धरातल जिसमें जन्मा तू
इसी धरा पर मिल जाएगा तू
कौन सी भक्ति में लिप्त इंसा तू
थोड़ा तो अब इंसा बन जा तू
पहाड़ों की सुंदरता ही बस बची कुछ
शहरों को काले धुओं में झोंक चुका तू
केसे बन गया इतना नर्दयी मानव
रोज़ खेलता है अपने ही घरोंदे से तू
है प्रलय का तुझे गर अब भी ज्ञात नहीं
लगा चुका पर्यावरण को प्रगति की भेंट तू
इतना नेत्रहीन तू हुए केसे मानव
मृदा को बंजर कर गया है तू
देख प्रकृति का अपना प्रलय हर तरफ
जिस चौंध के लिए बिक गया तू
एक सूक्ष्मजीव से जान बचाता मानव
अपनी कर्मों से अपना ही मुंह छुपाता तू
—- हेमन्त कोहली