मैं खुद ही ख़ुदा हो जाऊं
है कैसा मुझ में ये गुरूर
ख़ुद का दुश्मन बन जाऊं
जहाँ को भी दफ़्न कर आऊँ
ये कैसा है बन गया इंसान
कौन सा ख़ुदा का दर्स
ना सोचा होगा उसने की इंसां
ऐसी भी कर लेगा शक़्ल दर्ज़
लहू का प्यासा हुआ क्यूं
क्यूं नफ़रत हैं जेहन में पाली
वो कौन सा है इबादत का क़ानून
जो जन्नत के बदले मांगे है लहू
कब पड़ लिया ऐसा कलमा
कौन दे गया ये फ़ज़ालिते
जो मेरा ही है हूबहू
मेरे ही हातों रंगा उसका लहू
मुझे फ़िर बना दे शीर खोवार
नहीं कबूल बनना वहशी दरिंदा