वो टूटे हुए मकानों में, सुने पड़े मैदानोँ में, कहीं मेरा बचपन आवाज़ देता है ज़ोर से कानों में, फ़िर से रंगीन करने आजा ओ बिछड़े मुसाफ़िर , सकून जो यहाँ है वो कहाँ तेरे मकानों में।
वो टूटे हुए मकानों में, सुने पड़े मैदानोँ में, कहीं मेरा बचपन आवाज़ देता है ज़ोर से कानों में, फ़िर से रंगीन करने आजा ओ बिछड़े मुसाफ़िर , सकून जो यहाँ है वो कहाँ तेरे मकानों में।
बहुत ही सच लिखा है आपने। 👌
LikeLike
Thanks
LikeLike